Bikaner Rangmanch : सरकारों के सहारे नहीं समाज से मिले मान से फलेगा रंगमंच
अभिषेक आचार्य
RNE Bikaner
चाय की चुस्कियों के बीच एमेच्योर थियेटर की बात को तो मंगलजी ने अच्छी तरह से समझा दिया था। रंगमंच का ये रूप ही पूरे देश में चल रहा है, ये भी पहली बार पता चला। एमेच्योर थियेटर बड़ी जिम्मेवारी है, इसका अहसास इंडिया रेस्टोरेंट की उस बैठक में शामिल सभी लोगों को सहज में हो गया था। गंभीर बात सुनने और समझने के बाद एक चुप्पी का वहां आना स्वाभाविक ही था। चुप्पी को तोड़ने की पहल कौन करे, अब इस बात की प्रतीक्षा थी। सबकी नजरें मंगलजी के चेहरे पर थी और वे सबके चेहरों पर बदल रहे भावों का आंकलन कर रहे थे।
वहां बैठे हरेक की आंखों में एक उत्सुकता स्पष्ट नजर आ रही थी। जो इस बात की द्योतक थी कि अभी सब लोग कुछ और जानना चाहते हैं। ये पढ़कर मंगलजी ने ही बात शुरू की। इस बात को बताने के पीछे मेरा एक खास मकसद था।
जगदीश शर्मा जी ने वो पूछा। “वो ये कि हम भी इस शिविर के जरिये जिस रंगमंच की शुरुआत कर रहे हैं, वो एमेच्योर थियेटर है। इस कारण कोई कुछ पाने की अपेक्षा रखता है तो अलग हो जाये। हम रंग आंदोलन खड़ा करना चाहते हैं ताकि पहले समाज इस बात को समझे तो सही कि रंगकर्म एक महत्ती काम है।”
मनोहर कलांश जी ने सहमति दी। “जब तक हम रंगमंच को आंदोलनात्मक स्वरूप नहीं देंगे तब तक हमें दर्शक भी नहीं मिलेंगे और न ही समाज हमें मान्यता देगा। जिस दिन हमने अपने रंग आंदोलन से समाज को जोड़ लिया, समझ लो उस दिन से हमारी आधी समस्याएं हल हो जायेगी। रंगमंच को दो ही जगह से आश्रय मिल सकता है। पहला राज से और दूसरा समाज से। राज से हम उम्मीद करें तो वो बेमानी होगी। राज अगर कुछ मदद या आश्रय देता भी है तो वो पहले उसमें अपना नफा देखता है। दुसरे, वो भीख की तरह मदद देता है। जैसे बड़ा अहसान कर रहा हो। जो हर कलाकार को नागवार लगता है। प्रदीप जी, गलत तो नहीं कह रहा।”
वे बोले “बिल्कुल नहीं। अकादमियां सौ तो औपचारिकता पूरी कराती है और बाद में कुछ रुपल्ली देती है। जिससे नाटक सम्भव ही नहीं। खैरात लेनी ही नहीं चाहिए।”
मंगलजी उनके जवाब पर मुस्कुराए। “अकादमियों से ज्यादा अपेक्षा भी नहीं करनी चाहिए। वे तो यथास्थिति की पोषक होती है। उनके पास कोई विजन नहीं होता। इस कारण राज्याश्रय की तो उम्मीद ही नहीं करनी चाहिए। इस स्थिति में हमारे पास दूसरा जरिया बचता है समाज का। समाज का आश्रय ही हमारे लिए उपयोगी, कारगर है। जो रंगमंच को आंदोलन बनाये बिना संभव नहीं।”
बुलाकी भोजक जी बोले “समाज कैसे आश्रय देगा। समाज सबसे पहले तो हमारे कर्म को मान्यता देगा तब हमारी समाज मे प्रतिस्थापना होगी। हमें रंगकर्मी के रूप में सम्मान मिलेगा। जो हमारे लिए आवश्यक है। सामंती मानसिकता वाले शहरों में अब भी नाटक करने को अच्छा काम नहीं माना जाता। ये सच है या नहीं?
विष्णुकांत जी ने हां में सिर हिलाया। समाज जब मान्यता देगा तो हमें असली पहचान मिलेगी और हमारे नाटक को दर्शक मिलेंगे। हम नाटक करते ही दर्शक के लिए है, उसके अभाव में हम जिंदा नहीं रह सकते। वो समाज ही तो हमें दर्शक देगा। जाहिर है, दर्शक देगा तो फिर वो टिकट के पैसे भी देगा। इससे हमारी आर्थिक समस्याएं हल हो जाएगी। हमें अकादमियों की तरफ देखना नही पड़ेगा। इस कारण ही हमारा जोर समाज से आश्रय पाने के लिए होना चाहिए।
प्रदीपजी ने अगला सवाल किया। सर, रंगमंच के दूसरे स्वरूप पर हम बात कर रहे थे। वो क्या है।
दूसरा स्वरूप है, व्यावसायिक रंगमंच। मैं इसके बिल्कुल खिलाफ नहीं हूं। रंगमंच रोजी रोटी का जरिया बने, ये तो हर कोई चाहेगा। इसके लिए रेपेट्री है, कुछ संस्थान है। मगर उनमें इतनी क्षमता नहीं कि वो सभी रंगकर्मियों को खपा सके। यदि हर जिले में रेपेट्री की जो कल्पना थी, वो पूरी हो तब तो बात बने। उससे ही फिर कलाकार को रोजगार मिले। रोटी रोजी के सोच से वो फ्री होगा तभी तो नाटक को अपना शत प्रतिशत देगा। मगर व्यावसायिक रंगमंच की परिकल्पना हिंदी भाषी प्रदेशों में तो मुझे जल्दी से साकार होती दिखती नहीं। मगर मैं भी चाहता हूं कि व्यावसायिक रंगमंच की प्रतिस्थापना हो।
बड़ी गम्भीर बात कही थी उन्होंने। सब इसे सुनकर एकबारगी तो मौन हो गये। मौन को तोड़ा चौहान साब ने।
सर, रंगमंच के तीसरे स्वरूप के बारे में भी बता दीजिए।
जरूर ” इस तीसरे के बारे में तो जानना सबसे जरूरी है। इसका मैं कट्टर विरोधी हूं, हर रंगकर्मी को इसका विरोधी होना चाहिए। क्योंकि इसका ध्येय न तो नाटक की प्रतिस्थापना है, न समाज से सरोकार है और न ये दायित्त्व बोध से प्रेरित है।”
ये बोलते बोलते मंगलजी का चेहरा लाल हो गया। साफ दिख रहा था कि वे गुस्से में है।
तीसरा होता है कमर्शियल थियेटर। ये थियेटर बड़े व्यवसायी अपने प्रोडक्ट के प्रचार के लिए करते हैं। चुनाव के समय नेता अपने प्रचार के लिए इस माध्यम का उपयोग करते हैं। इसका पूरा ध्येय व्यवसाय होता है। इस कारण न तो वे फूहड़ता से परहेज करते हैं और न उनको व्यक्ति, समाज से कोई मतलब होता है। केवल और केवल खुद का लाभ। जब ध्येय ही ये हो तो फिर इसके लिए वे कुछ भी कर गुजरते हैं नाटक में। प्रोफेशल थियेटर सही है, कमर्शियल नहीं।
सबको लगा कि बात तो सही है। इस तरह से भी नाटक का उपयोग बड़ी कम्पनियां, राजनेता करते ही है। उसमें पैसा बहुत है मगर उनके लिए टारगेट समाज नहीं होता, अपना एजेंडा होता है।
चुप्पी को प्रदीपजी ने तोड़ा “आपने बिल्कुल सही कहा सर। रंगमंच के ये तीनों स्वरूप अब अच्छी तरह से समझ आ गए। इनके रूप व ध्येय भी स्पष्ट हो गये।”
एस डी चौहान बोले “शुक्र है सर, बीकानेर अभी तक इस बीमारी से बचा हुआ है। यहां कमर्शियल की छोड़ें, प्रोफेशनल थियेटर भी वजूद नहीं रखता है।”
जगदीश जी ने कहा “यहां तो केवल और केवल एमेच्योर थियेटर ही चलता है। यहां के रंगकर्मियों का इससे दीगर कोई सोच भी नहीं है। इसे अच्छी बात माना जा सकता है। यहां के अधिकतर रंगकर्मी घर फूंक के तमाशा देखने के आदि है। वे नाटक पर खर्च ही करते हैं, नाटक से कुछ आर्थिक लाभ कमाने की अपेक्षा नहीं रखते।
मंगलजी को इन सबकी बातें सुनकर बहुत संतोष हुआ। उनके चेहरे के भाव भी बदल गये। फिर तो हम लोगों को काम करने का बड़ा मजा आयेगा। इस तरह की पवित्रता दूसरे शहर में मिलना मुश्किल है। ये सब मैंने इस कारण बताया कि हमारे परिवार में वही आये जो नाटक को एक पुनीत कार्य समझे। समाज के प्रति अपना दायित्त्व समझे और पाने की, ग्लैमर की उसमें कोई लालसा न हो।
सब सहमति में सिर हिला रहे थे।
प्रदीप जी, काफी भारी वातावरण हो गया। इसे तो चाय ही हल्का कर सकती है।
सब हंसने लगे।
वर्जन
हर रंगकर्मी को ये समझना चाहिए कि बीकानेर रंगमंच की नींव कितनी पवित्रता से रखी गई थी। इसे बनाने में कई रंगकर्मियों का त्याग शामिल है। आज का रंगकर्मी इतिहास नहीं जानता, इस कारण वो रंगमंच को लेकर इतना गम्भीर भी नहीं रहता। केवल अभिनय भर कर लेना रंगकर्म करना नहीं है। इसे आंदोलन के भाव से करना होता है ताकि समाज इससे जुड़ा रहे। समाज इसे आश्रय देता रहे। यदि किसी दिन समाज छिटक गया तो फिर से नई शुरुआत करनी पड़ेगी। जो आज की हालत को देखते हुए आसान नहीं लगती। क्योंकि बिना समाज के आश्रय के हम नाटक को जिंदा ही नहीं रख पायेंगे।
प्रदीप भटनागर